इस बार की
सर्दियाँ हर बार से अधिक निर्मम थीं
. पीठ और घुटने का
दर्द चैन से बैठने नहीं देता था. रोज़ सुबह होने के
बाद गृहस्थी के और अपने वहाट्सएप ग्रुप्स के रोज़ के टास्क निपटाते-निपटाते कब रात आ जाती पता ही नहीं चलता. इस बीच बरखा के फाइनल इम्तहान भी गुज़रे. त्यौहार से पहले की साफ़-सफाई और पकवान बनाने का दौर भी गुज़रा और होली का त्यौहार भी गुज़र गया. बहुत थक चुकी थी और सोचा था होली के बाद सिर्फ
आराम ही आराम करूँगी लेकिन सोचा हुआ होता कहाँ है.
एक अप्रैल से
हमारी मेड, जो वैसे भी एक
ही टाइम आती है, उसे बुखार
आ गया और उसने काम से छुट्टी ले ली. मैंने उसकी बेटी
से कहा, मम्मी का कोरोना टेस्ट ज़रूर करा लेना और
उसने मुझे आश्वासन दिया कि उनका टेस्ट करा लिया है, टेस्ट में कुछ नहीं आया. बस उन्हें कमज़ोरी
बहुत हो गयी है इसलिए डॉक्टर ने आराम करने को कहा है.
मेड की
अनुपस्थिति में झाडू, बर्तन,
कपड़ों का काम भी आ गया. 6 अप्रैल को जब वो काम पर आई तो मन गदगद हो गया. थकान के मारे बुरा हाल था. सोचा अब कम से कम झाडू पोंछा, बर्तन, कपड़ों के काम से तो छुटकारा मिल जाएगा. इस बीच मुझे हल्की सी खाँसी हो गयी थी. 7 अप्रैल को दिन में कम्प्युटर पर काम करते करते
वहीं मेज़ पर सर रख कर मैं निढाल सी लेट गयी. बरखा ने माथा छुआ तो बोली, “दादी आपका बदन गरम हो रहा है.” मैंने कोई
ख़याल नहीं किया. शाम को चाय बनाने के बाद जब रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थी
तो मुझे अनुभव हुआ कि सर घूम रहा है. थर्मामीटर लगा कर बुखार चेक किया तो १०१
डिग्री निकला.
राजन (हमारे
पतिदेव) को बताया तो उन्होंने एक पैरासीटामोल दे दी. दवा खाने के बाद किचिन का काम
निबटा कर मैं सो गयी. सुबह उठी तो बड़ी कमज़ोरी महसूस हो रही थी. रश्मि, मेरी छोटी बहू जो दिल्ली में रहती है,
से बात हुई तो उसने भी कहा आपकी
आवाज़ से लग रहा है कि आपकी तबीयत खराब है. हमने कहा ऐसे ही थोड़ी सी खाँसी है, दवा
खा ली है ठीक हो जायेगी, कोई ख़ास बात नहीं है. भारतीय गृहणियाँ वैसे भी बहुत टफ
होती हैं. इससे भी अधिक खराब तबीयत में न जाने कितनी बार इससे भी अधिक काम किये
हैं तो छोटी-मोटी तकलीफों को तवज्जो देने की आदत नहीं रही कभी.
बुखार दूसरे
दिन भी नहीं उतरा था. राजन पाबंदी से हमें अपनी दवाइयाँ दे रहे थे. उन्हें हल्की-फुल्की
बीमारियों के इलाज का अच्छा अनुभव है और दवाओं की काफी जानकारी भी है इसलिए घर में
छोटी-मोटी तकलीफ के लिए सब उन्हें ही अप्रोच करते हैं.
पैरासीटामोल
खाकर हमारा बुखार कुछ देर के लिये उतर तो जाता था लेकिन फिर चढ़ जाता था. खाँसी भी
तेज़ होती जा रही थी. किचिन में काम करते करते अक्सर आँखों के आगे अँधेरा सा छा
जाता. हमें लगता हमारा बी पी लो हो गया है. थोड़ी देर को आकर लेट जाते और कुछ देर
बाद फ़िर उठ जाते. राजन कन्सल्टैंट इंजीनियर हैं उन्हें रोज़ क्लाइंट के यहाँ साइट पर जाना होता था.
वहाँ फ़र्नेस इरेक्ट हो रही थी. सुपरविज़न बहुत ज़रूरी था. १० अप्रैल तक हमारा बुखार
बिलकुल उतर गया. खाँसी तो वैसे भी १०-१५ दिन ले ही लेती है, ठीक होते होते, तो हम निश्चिन्त
हो गये.
दो-तीन दिन बाद
रश्मि से फ़िर बात हुई. खाँसी की वजह से हम ठीक से बोल ही नहीं पा रहे थे.
अब तो वह बहुत चिंतित हो गयी. यह १४ अप्रैल की बात है. उसने बहुत ज़ोर देकर कहा कि
आप अपना कोविड टेस्ट करवाइये तुरन्त. प्राइवेटली घर पर बुला कर टेस्ट करवाना यूपी
में एकदम से बैन था. सरकारी अस्पतालों में ज़बर्दस्त भीड़ थी. किसी को कोरोना न हो
रहा हो तो वहाँ जाकर संक्रमित होकर ही लौटे. १५ अप्रैल को किसी तरह से घर पर ही
कोरोना टेस्ट का इंतज़ाम हुआ. कैसे हुआ यह सरन और रश्मि ही जानें.
अभी तक सारा
फ़ोकस हम पर ही था. जब घर पर ही टेक्नीशियन आ गया तो सरन, मेरा छोटा बेटा और रश्मि दोनों ने इनसिस्ट किया कि पापा
का भी टेस्ट करवा लेना. टेक्नीशियन ने दोनों का रेंडम टेस्ट भी किया और आरटीपीसीआर
वाला टेस्ट भी किया. रेंडम टेस्ट की रिपोर्ट हम दोनों की ही निगेटिव आई. घर में
जश्न का सा माहौल हो गया. बच्चों को भी मीठी झिड़की मिल गयी कि बिना बात को इतना
शोर मचाया लेकिन आरटीपीसीआर टेस्ट की रिपोर्ट १७ अप्रैल को आई. दिन में लंच के समय
रश्मि का फोन मेरे पास आया. उसने बताया कि आपकी रिपोर्ट तो निगेटिव है लेकिन पापा
की रिपोर्ट पॉजिटिव आई है.
मेरा दिल धक्
से बैठ गया. रश्मि देर तक मुझे हिदायतें देती रही कि इन्हें आइसोलेशन में रखना
होगा तो किन बातों का ध्यान रखूँ. अब मुझे बरखा की चिंता हुई. उसे उसकी मम्मी के
पास जल्दी से जल्दी पहुँचाना था. इन पर खीझ भी हो रही थी कि कोरोना काल में जब सब
घर से काम कर रहे थे तो इन्हें ही क्यों रोज़ जाना पड़ता था. वहीं से कहीं से
संक्रमित होकर आये होंगे. गनीमत यही थी कि ऑक्सीमीटर में हम लोगों का ऑक्सीजन
लेविल ठीक आ रहा था. 8 मार्च
को हमें वैक्सीन का पहला शॉट लग चुका था. 6 अप्रैल को दूसरी डोज़ लगनी थी लेकिन 28 दिन की लिमिट बढ़ा कर डेढ़ महीने की कर दी
गयी थी. हम अपना नंबर आने का इंतज़ार कर रहे थे कि बीच में यह आफत आ गयी.
खैर, दिल्ली की
एक कंसलटेंट डॉक्टर को सरन और रश्मि ने अप्रोच किया. उनके साथ ऑनलाइन कॉन्फ्रेंस
कॉल हुई और घंटे भर के अन्दर ढेर सारी दवाएं, वेपोराइज़र, फल-फ्रूट, नारियल पानी के क्रेट्स और खाने पीने के विविध
प्रकार के सामानों का अम्बार घर में लग गया. दो दिन तक हम दोनों के कई ब्लड टेस्ट
हुए और हम दोनों का कोरोना का ट्रीटमेंट विधिवत आरम्भ हो गया. मैंने अपना विरोध भी
जताया कि जब मेरी रिपोर्ट निगेटिव है तो मैं दवा क्यों खा रही हूँ लेकिन डॉक्टर का
कहना था कि सिम्पटम्स तो मुझे भी हैं ही इसलिए मुझे भी दवा खानी ही होगी. राजन की
रिपोर्ट पॉजिटिव आई है और उनकी देखभाल मुझे ही करनी होगी तो एहतियातन मुझे भी पूरा
कोर्स लेना होगा.
राजन को एक
कमरे में क्वारेंटाइन कर दिया गया. बरखा और मैं भी अलग-अलग कमरों में सोये. रात भर
चिंता के मारे मुझे नींद नहीं आई. ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दलदल में गहरे
धँसती जा रही हूँ. बरखा को उसकी मम्मी के यहाँ भेजना था इसलिए उसका टेस्ट कराना भी
ज़रूरी था कि वह पूरी तरह से स्वस्थ है या नहीं. १७ तारीख को एक बार फिर रेंडम
टेस्ट हुआ मेरा, बरखा का और
मेरी देवरानी पिंकी का. तीनों की ही रिपोर्ट निगेटिव आई. अब हमें पूरा विश्वास हो
गया कि हम बिलकुल ठीक हैं, तबीयत राजन की खराब है और अब हमें सब कुछ छोड़ कर इनकी
अच्छी तरह से तीमारदारी करनी है. इनके खाने-पीने, दवा, इलाज और आराम का विशेष ध्यान रखना है. उसी
दिन डॉक्टर के साथ फिर से ऑनलाइन मीटिंग हुई. उन्होंने अविलम्ब हम दोनों का ही सीटी
स्कैन कराने का निर्देश दिया.
18 तारीख की
सुबह हम दोनों भतीजे आनंद के साथ एक्स रे के लिए गए. तब तक हम स्वयं को पूर्ण
स्वस्थ और इन्हें बीमार मान कर चल रहे थे. इन्हें कार में पीछे की सीट पर अकेले
बैठाया और मैं आनंद के साथ फ्रंट सीट पर बैठी. इनके मास्क और ग्लव्ज़ सबका विशेष
ख़याल था कि ज़रा भी हटें नहीं. इनके हर हाव-भाव पर नज़र थी कि इन्हें किसी तरह की
थकान या परेशानी तो नहीं हो रही है. दिन में बारह बजे तक रिपोर्ट आ गयी सी टी
स्कैन की और उसने सारी तस्वीर ही उलट दी. इनकी एक्स रे रिपोर्ट बिलकुल क्लीयर थी
लेकिन मेरे लंग्स में निमोनिया का पैच था और कोरोना वायरस के होने की चेतावनी थी.
इस रिपोर्ट के आने के बाद यह सिद्ध हुआ कि हम तो इनसे भी अधिक संक्रमित हैं और
हमें अधिक देखभाल की ज़रुरत है. निमोनिया के इलाज के लिए नेबुलाइज़ेशन भी शुरू हो
गया.
हमारी छोटी
देवरानी पिंकी ने हमें किचिन के काम से बिलकुल फ्री कर दिया. रोज़ सुबह का नाश्ता
और खाना बड़ी पाबंदी से वो बनातीं और आग्रह करके खिलातीं. हमारे भी संक्रमित होने
की रिपोर्ट आने का एक फ़ायदा यह हो गया कि अब इन्हें आइसोलेशन में अलग कमरे में
रहने की बाध्यता नहीं रही. बरखा को उसकी मम्मी के पास भेज दिया था. अब घर में
सिर्फ हम दोनों ही थे तो डाइनिंग टेबिल पर साथ बैठ कर चाय-नाश्ता करते, खाना खाते, एक साथ बैठ कर टीवी देखते, एक दूसरे का टेम्प्रेचर लेते और चाय के कप में
तूफ़ान लाने वाली राजनीतिक सामाजिक मुद्दों पर बहस करते. दवाएं देने की ज़िम्मेदारी मेरी
थी. दिन में चार बार स्टीम लेने के लिए इन्हें रिमाइंड करना, गरारे का पानी गरम करके देना और कहीं
ठंडा न हो जाये इसलिए बार-बार याद दिलाना मुश्किल काम था. दिन में तीन बार मुझे
नेबुलाइज़ करने के लिए ये मुस्तैदी से ड्यूटी निभाते थे. गले में कफ की वजह से इन्हें
भी कुछ परेशानी हो रही थी, तब तीन दिन तक दिन में दो बार इन्हें भी नेबुलाइज़ करने
की सलाह डॉक्टर ने दी.
बीमारी के कारण
आराम तो किया लेकिन किन हालात में किया और कितना किया यह ईश्वर ही जानता है. हम
दोनों को वैक्सीन की एक डोज़ लग चुकी थी इसलिए शायद हमारा संक्रमण बहुत अधिक गंभीर
नहीं हुआ. ऑक्सीजन लेवल इनका तो ९७ से नीचे कभी नहीं गया. मेरा ९५ से नीचे नहीं
गया. जिन दिनों बुखार था उन दिनों तो ज़रूर ९३-९४ तक आ गया था लेकिन तब यही सोच रहे
थे कि कमज़ोरी के कारण ऐसा हुआ होगा. बुखार उतरने के बाद यह फिर से ९६-९७ आने लगा
था.
खैर दवाइयां
खाते-खिलाते, एक दूसरे को
सहेजते-सम्हालते और एक-दूसरे के साथ नोक-झोंक करते ये दिन भी बीत ही गये. ईश्वर की
कृपा से और बच्चों की मुस्तैदी से सही वक्त पर इलाज आरम्भ हो गया तो कोई
कॉम्प्लिकेशन नहीं हुआ. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि हम दोनों ने कभी भी
हताशा, निराशा या अवसाद को
अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. घबरा कर फोन पर चिंता व्यक्त करने वाले रिश्तेदारों
को हम ही सांत्वना देकर समझाया करते थे. देखो हमारी आवाज़ कितनी नार्मल है. ऑक्सीजन
लेवल कितना बढ़िया है. आजकल कितनी खातिर हो रही है. हा..हा..हा.
३० अप्रैल को
हमारे सेल्फ क्वारेंटीन की अवधि समाप्त हुई. काफी दवाएं भी उस दिन तक समाप्त हो
गयीं थीं. एक मई को हमने सारे घर को मेड की सहायता से सेनीटाइज़ किया. खिड़की,
दरवाज़े, कुंडी, चटकनियाँ सब अच्छी तरह से साफ़ करके सेनीटाइज़ करवाए. परदे, चादरे, तौलिये, कवर्स सब चेंज किये और एक नॉर्मल दिनचर्या की ओर कदम बढ़ाया.
कोरोना से इस
जंग में परिवार की एकजुटता, सद्भावना
और सहयोग ने हमें बहुत सहारा दिया. देवर राजेश, देवरानी पिंकी, भतीजा आनंद हर समय हमारी किसी भी आवश्यकता को
पूरा करने के लिए कंधे से कंधा मिला कर खड़े मिलते थे. सरन और रश्मि दिल्ली में
ज़रूर थे लेकिन इलाज की हर स्टेप पर उनकी पैनी नज़र थी. डॉक्टर से मीटिंग्स अरेंज
करना, टेस्ट की रिपोर्ट
कलैक्ट करना, डॉक्टर से
सलाह मशवरे करना, फिर
डॉक्टर की हिदायतों को हम तक पहुँचाना और उन्हें कार्यान्वित कराना सारा दायित्व
उन लोगों ने उठा रखा था. दवाएं लेने के समय पर रोज़ दिन में कई बार वीडियो कॉल करके
रश्मि सुनिश्चित करती थी कि हम लोगों ने दवाएं समय से खा ली हैं या नहीं या कोई
दवा कम तो नहीं है.
अमेरिका में
बैठे मेरे बड़े बेटे-बहू शब्द और कविता दिन में कई कई बार फोन करके मिनिट-मिनिट की
रिपोर्ट लेते थे और हर टेस्ट की रिपोर्ट पर उनकी भी पैनी नज़र रहती थी. हम दोनों से
बात करके, सरन और रश्मि के साथ डिस्कस करके वो लोग भी हर मिनिट का अपडेट लेते रहते
थे और हर वक्त अलर्ट रहते थे. सशरीर यहाँ उपस्थित न होने की बेचैनी उनकी आवाज़ से
झलकती थी. परिवार की क्या अहमियत होती है, विपदा के समय में उसकी क्षमता और सामर्थ्य कितनी बढ़ जाती है, इसका मधुर फल
इन कुछ दिनों में चखने को खूब मिला. सबका कितना भी आभार मान लूँ अकिंचन बौने शब्द
उन्हें कभी व्यक्त कर ही नहीं पायेंगे.
अपनी मेड का
धन्यवाद यदि नहीं करूँगी तो यह उसके प्रति घोर अन्याय होगा. मैंने हम लोगों के
संक्रमित होने की खबर मिलते ही उसे मना किया था काम पर आने के लिए लेकिन उसने पूरी
निष्ठा के साथ अपनी ड्यूटी निभाई. एक दिन भी नागा नहीं की. हम लोगों के बर्तन भी
माँजे, कपड़े भी धोये,
कमरों में सफाई भी की. मैंने उसे
डबल मास्क लगा कर काम करने की हिदायत दी थी. नहीं आना चाहती तो कोई उसे दोष नहीं
देता बल्कि मैंने तो उसे कहा भी था कि हम दोनों बीमार हैं, तुम्हारे पैसे भी नहीं कटेंगे, तुम चाहो तो मत आओ
लेकिन उसने दोनों हाथ जोड़ कर यही कहा कि उसे भगवान् पर भरोसा है. हमारी परेशानी
में वह सारा काम छोड़ कर घर नहीं बैठेगी. मेरे हृदय में उसके लिए बहुत कृतज्ञता का
भाव है. मानवता की शायद यही सबसे बड़ी मिसाल है.
कोरोना का संकट
आया भी और गुज़र भी गया लेकिन यह गुत्थी अभी तक नहीं सुलझ पाई कि कौन किससे
संक्रमित हुआ? संक्रमण क्लाइंट की फैक्ट्री से घर में आया या मेड ने मुझे संक्रमित
किया और फिर मुझसे इन्हें यह प्रसाद मिला? लेकिन अब हम सभी ठीक हैं. अंत भला तो सब
भला.
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साधना वैद जी की कहानी को कोरोना विजेता की कड़ी में प्रस्तुत किया है रश्मि प्रभा जी ने. कैसे पारिवारिक एकता और सहयोग के चलते बिना घबराये कोरोना संक्रमण से मुक्त हुआ जा सकता है, इसे साधना जी ने दिखाया है.
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