रात में खांसी
ने दरवाजा खटखटाया. यह शायद दो दिन पहले फ्रिज़ से निकला दही खाने का परिणाम था.
ठण्डी व खट्टी चीजें मुझे तुरन्त खाँसी करती हैं, यह मैं जानती हूँ. यह प्रज्ञापराध था सजा तो मिलनी ही
थी. खूब गरम-गरम पानी पिया पर सुबह तक खाँसी अन्दर तक चली आई.
खाँसी का एक
ठसका भी दिमाग में घंटी सी बजा देता है. मयंक ने कुछ चिन्ता के साथ कहा. ‘वर्क फ्रॉम होम’ की सुविधा के कारण वह
अगस्त में ग्वालियर आ गया था. श्वेता पिछले साल सिडनी चली गयी थी. मयंक उसकी
व्यवस्थाएं जमाकर लौट आया था और 22 मार्च को सिडनी जाने वाला था लेकिन उसी दिन देश में सम्पूर्ण लॉकडाउन की
घोषणा हो गई और वह नहीं जा पाया. अब काफी रकम अदाकर एक टिकिट मिला था 2 नवम्बर का. जाने से पहले वह मेरे
स्वास्थ्य के प्रति आश्वस्त हो लेना चाहता था. मैंने उसे आश्वस्त किया, “मुझे
हमेशा इसी तरह की खांसी होती है. डा. गोविला( होम्यो) की दो खुराकों से ठीक हो जाती है. तू
चिन्ता न कर.”
मैंने उसी समय
डा. गोविला को फोन लगाया पता चला कि वे आठ दिन के लिये बाहर गई हैं. ओह, मुझे तो जल्दी ठीक होना था, मयंक के लिये. मैंने गांधी नगर में
स्थिति एक डाक्टर से तीन दिन की दवा ले आई. दो-तीन दिन तक लगता रहा कि ठीक हो रही
हूँ फिर लगा कि कोई लाभ नहीं.
“खांसी बड़ी
हठी है. डा. गोविला नहीं, तो
कोई नहीं!” मुझे चिन्ता हुई. कमजोरी बढ़ रही थी. अष्टमी के दिन कन्या भोग बनाते
हुए मुझे लगा कि मैं खड़ी भी नहीं हो पा रही. अन्दर आरी सी चलती महसूस हो रही थी. मयंक
को यह नहीं बता सकती थी पर कब तक नहीं बताती. स्थिति बेकाबू होती लग रही थी. मैं
जैसे परास्त हो रही थी.
“बेटा, मुझे डाक्टर लाहा के पास चलो.”
“माते,
यह पहले ही सोच लेतीं.” मयंक थोड़ा
नाराज हुआ क्योंकि उसका शुरु से यही विचार था. यह 28 अक्टूबर की बात है.
डाक्टर लाहा
मेरे विचार से ग्वालियर के सबसे योग्य, अनुभवी और रोग की जड़ तक पहुँचने वाले डाक्टर हैं. सन् 2003 उन्होंने मुझे लगभग मौत के मुँह से बाहर
निकाला था तबसे उनसे सम्पर्क बना हुआ है. उन्होंने हालचाल पूछा और दवा लिख दी साथ
ही कोविड टेस्ट व एक्सरे कराने को भी कहा.
“सर कोविड
टेस्ट क्यों?”
“ऐसे ही.. जरूरी
नहीं
कि इन्फेक्शन हो ही पर कराना ठीक रहेगा.”
सीटी स्कैन के
बाद कोविट टेस्ट घर पर ही कराने के लिये लाल पैथोलॉजी वाले को बुलाया. टेस्ट करने
वाले युवक ने सिर से पाँव तक अजीब सी ड्रैस पहनी फिर दवा में डूबी एक सलाई मेरी
नाक में अन्दर तक डाल दी. उसकी चुभन से मेरी आँखों में आँसू निकल पड़े. मुझे
उम्मीद थी कि टेस्ट निगेटिव आएगा. आना ही चाहिये ताकि मयंक सिड़नी जा सके. मेरी
हालत केवल खाँसी के कारण थी और ऐसी खांसी तो मुझे लगभग हर साल हो जाती है. 29
अक्टूबर की शाम को रिपोर्ट आई
पॉजिटिव. मेरी आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया. शरीर के कष्ट से ज्यादा पीड़ा इस
बात की थी कि अब मयंक सिडनी नहीं जाएगा, जहाँ उसका पाँच साल का बेटा इन्तज़ार कर रहा है, श्वेता पलकें बिछाए बैठी है. इसकी जिम्मेदार मैं
हूँ. न ठण्डा दही खाती न... मेरी आँखें भर आईं. खुद पर क्रोध आया. मैंने श्वेता को
लिखा, सॉरी बेटा.
उसने कहा, ”कोई बात नहीं माँ.
आपकी तबीयत से बढ़कर कुछ नहीं है.”
तभी मुझे पता
चला कि बीएल ओ अनीता मैडम और सक्सेना मैडम भी कोविड की चपेट में आ गई हैं और 22
अक्टूबर से ही. सक्सेना का संक्रमण
स्तर इतने उच्च स्तर पर था कि उनके सम्पर्क में आने वाला संक्रमित होना ही होना था.
खैर संक्रमण जैसे भी हुआ तो सिर पर मुसीबत तो आ ही चुकी थी. मयंक और वीडियो
कॉल पर प्रशान्त सुलक्षणा विवेक निहाशा दिलासा देते रहे पर मेरा मन बेहद अशान्त था.
इस बीमारी का सबसे बुरा पहलू है मानसिक. रोगी अलग थलग और अछूत सा हो जाता है. अपने
भी पराए हो जाते हैं. लोग घर को अजीब सी नजरों से घूरते हैं.
मयंक उसी शाम
अपने डाक्टर मित्र के निर्देश पर मेरे लिये सात दिन की दवाएं ले आया. सावधानी और
बचाव को सोचते हुए अपने लिये भी. साथ ही खुद भी कोविड टेस्ट करा आया. अब मैं कमरे
में अकेली थी. ढेर सारी दवाइयों और भाप लेने वाले यंत्र के साथ. सुबह से शाम तक
ढेरों गोली कैप्सूल लेना. दो-तीन बार स्टीम और ऑक्सीजन चैक करते रहना, यही
दिनचर्या थी.
31 अक्टूबर को एक और बम गिरा. मयंक की रिपोर्ट भी पॉजिटिव आई. मुझे अब मयंक की चिन्ता थी पर वह शान्त था. सहजता से बोला, “ माँ अब हम दोनों एक जैसे हैं. अलग और दूर रहने की जरूरत नहीं है. और देखो, आप संक्रमित नहीं भी होतीं तब भी मेरा सिडनी जाना संभव नही था. उसके लिये मेरी रिपोर्ट निगेटिव होनी चाहिये थी. इसलिये खुद को कोई दोष ना दो. अभी हमें और साथ रहना है न.” यह सुनकर मन थोड़ा शान्त हुआ पर काम करने की स्थिति में हम दोनों ही नही थे. किसी तरह उठकर चाय मैं बनाती और काढ़ा मयंक बना लेता. पड़ोस में भाभी, सुलक्षणा की बड़ी बहिन ऋतु और मयंक की ससुराल वालों ने हमें खाना नहीं बनाने दिया. मुझे संकोच हो रहा था खाना मँगाने में इसलिये एक दिन हमने मिलकर खाना बनाने की कोशिश की पर हमें दोनों को तीव्रता से अनुभव हो गया कि कोरा स्वाभिमान ताक पर रख मदद लेनी ही पड़ेगी. मेरे शरीर में जरा भी दम नहीं थी. मयंक भी बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था.
इस बीच मैंने कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, मधुशाला, नतोहं आदि कुछ पुस्तकें पढ़ीं. गाओ
गुनगुनाओ ग्रुप की सभी सखियाँ और दूसरे तमाम हितैषी फोन पर हालचाल लेते रहे.
वन्दना ‘जिज्जी’ ने जब कहा कि “हमेशा पॉजिटिव रहने वाले लोगों को तो ‘पॉजिटिव’
होना ही था.” तो मुझे हंसी आ गई. सचमुच मैं हमेशा ही पॉजिटिव सोचती हूँ पर अब मैं
‘निगेटिव’ होने की दुआएं माँग रही थी. ग्यारह दिन बाद हम दोनों ने फिर कोविड टेस्ट
कराया. रिजल्ट आने तक दिल धड़कता रहा कि पता नहीं ‘निगेटिव’ आएगा भी या नहीं.
मेरी रिपोर्ट
दूसरे दिन ‘निगेटिव’ आगई थी पर खुशी अधूरी थी. मयंक की रिपोर्ट नहीं आई थी. एक दिन
मेरा इन्तज़ार में बीता. जब उसकी टेस्ट रिपोर्ट भी ‘निगेटिव’ आई तो मुझे लगा कि
हमने दुनिया जीत ली है. मैं बच्चों की तरह उछल पड़ी. मयंक को गले लगा लिया. हम
सचमुच एक अँधेरी सुरंग से बाहर आ गए थे. कमजोरी तो बहुत दिनों तक रही पर वे चौदह
दिन जिन्दगी के अभूतपूर्व दिन थे. व्यथा-वेदना के भी और स्नेह के भी.
बहुत जल्दी में और बिखरे से वाक्यों में लिखी गयी आपबीती को रश्मि दीदी ने और आपने सब तक पहुंचाया है .आपको और इस श्रंखला को शुरु करने के लिये रश्मि दीदी का हार्दिक अभिनन्दन क्योंकि यह एक पाठ है उन लोगों के लिये जो अभी तक इस व्याधि से नहीं गुज़रे और भुक्तभोगियों के लिये रोचक कहानी है .गुजरे हुए संकट को कहना सुनना सुकून देता है .
ReplyDelete